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श्वेत प्रदर …..

पतंजलि आयुर्वेदिक स्कूल लेक्चर न 45

admin by admin
08/04/2021
in feature, नारायणीयम आयुर्वेदिक स्कूल से, स्वास्थ्य
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श्वेत प्रदर …..
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प्रदर यह स्त्रीयों मेहोने वेले प्रमुख व्याधि के स्वरूप मे जाना जाता है! लेकिन लज्जासुलभ स्वभाव के कारण स्त्रियाँ इस बारे मे ज्यादा न बोलने के कारण इस व्याधि को बहुत बार दुर्लछित किया जाता है ! और इसका दुष्परिणाम उनको ही भुगतना पडता है !!
प्रदर क्या है ?
” प्रकर्षेण दार्यते चाल्यते रजोअनेनेति प्रदरम्”
एेसा आचार्यो ने कहा है! अर्थात इसमे स्त्री शरीर का पोषक तत्व अधिक मात्रा मे शरीर से बहार निकलने के कारण उनमे कमजोरी आती है, इस आर्तव प्रवाह को ही ” प्रदर ” इस नाम से संबोधित किया जाता है !!
योनिमार्ग से बहार जाने वाले स्त्राव के स्वरूप के आधार पर ही उसे श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर आदि नामो से संबोधित किया जाता है ! इस व्याधि के कारण स्त्रीयो के सुंदरता , सुकुमारता तथा स्वास्थ्य मे बाधा आती है !!
?प्रदर के प्रकार :
शास्त्रकारो ने इसके चार प्रमुख प्रकार वर्णन किये है !
1_ वातज प्रदर. 2_ पित्तज प्रदर. 3_ कफज प्रदर. 4_ सन्निपातज प्रदर. लेकिन व्यवहार मे मात्र _2 ही प्रकार प्रमुखता से दिखते है ! 1_रक्त प्रदर. 2_ श्वेत प्रदर
?” हेतु “
परस्पर विरोधी गुण के मध एकत्रित करके प्राशन करना , अजीर्ण होते हुए भी आहार करना , गर्भपात होने पर , अति मैथुन करने पर , पूर्व उपदंश से पीडित पुरूष के साथ सहवास करने पर , अति चकरमण . अति शोक , लंघनादि अपतर्ण / कर्षण . करने वाले उपायो का अति़ोग होने पर , अति वजन उठाने से , गर्भाशय पर अतिआघीत होने से दिन मे सोने से कुपित होने वाले वात , पित्त , कफ तथा त्रिदोष के कारण चार प्रकार के प्रदर उत्पन्न होते है ! इनके अलावा मंदाग्नि होने से , सतत् मलावरोध से , योनिप्रदेश के अस्वच्छता के कारण भी यह व्याधि होता है !!
?” पूर्वरूप. “.
स्त्रीयो मे दर्बलता उत्पन्न होती है !उत्साह मे कमी , अग्निमांध ., मुखवैवण्य , आखो के नीचे कृष्णवर्णिय वलयोत्पत्ती , कटि प्रदेशशूल , शवासकृच्छता , तथा मूत्रकृच्छता लछण उत्पन्न होते है !
?” सामान्य लछण “
” असृग्दरं भवेत सर्व साडंमर्दसवेदनम् ! “
सभी प्रकार के प्रदर मे शूल तथा अंगमर्द यह लछण प्रमुखता से दिखते है ! उसी तरह योनिमार्ग से धूले हुए चावल के पानी के सदृश स्त्राव जाता है , तो उसे श्वेतप्रदर समझा जाता है !
इन लछणो के अलावा चलते , बैठते , उठते , हुए जंघा प्रदेशी काठिन्यता आकर वेदना उत्पन्न होती है ! शिर:शूल , अरूचि , अजीर्ण , मूर्च्छा , कटिशूल , अमनस्कत्व , आदि लछण भी उत्पन्न होते है !
” कफज योनि : “कफोsभिष्यन्दिभिवुर्दधौ योनिं चेद् दूषयेतस्त्रिया: !
   स कुर्यातपिच्छिलां शीतां कण्डूगृस्ताल्पवेदनाम् !!
   पाण्डुवर्णा तथा पाण्डुपिच्छिलार्तववाहिनीम् !! ( सु.उत्तरतंत्र अ.३८/१०_११)
अभिष्यंदी आहार सेवन से प्रवृदध् कफ जब स्त्री को दूषित करता है, तबयोनि तथा पिच्छिल तथा शीतल होती प्रदेशी पांडु वर्णता , तथा आर्तव स्वरूप भी पाणडु और पिच्छिल होता है ! “श्लेष्मला पिच्छिला योनि: कणडुयुक्ताच शीतला ! “
” सदांह छीयते रक्तं यस्यां सा लोहितछया ! सवातमुग्दिरेदबीजे वामिनी रजसायुतम् !! प्रस्त्रंसिनी स्त्रंसते च छोभिता दुष्प्रजायिनी ! स्थितं स्थितं हन्ति गर्भं पुत्रघ्नी रक्तसंछयात् !अत्यर्थं पित्तला योनिदार्हपाकज्वरान्विता चतसृष्वपि चाधासु पित्तलिडगोच्छयो भवेत् !!
जिस योनिमार्ग से रक्तस्त्राव होता है उसे लोहितछया कहते है ! जिससे वायुयुक्त ( शूलयुक्त ) शुकृ रज: के साथ स्त्रवता है , उसे वामिनी कहते है ! जो योनि अपने स्थान से छूटकर नीचे आ गई है उसे प्रस्त्रंसिनी कहते है ! जिसे प्रसव समय अति कष्ट होते है उसे छोभिता कहते है ! वायु के रक्त छीण होने के कारण जो योनि गर्भ का धारण नही होने देती उसेपुत्रघ्नी कहते है! जिस योनिमार्ग मेपिटिका , दाह तथाज्वर विकार होता है उसे पित्तला कहते है ! इन पैत्तिक योनिरोगो मे प्रथम चार ( रक्छया , वामिनी , प्रस्सिंनी , तथा पुत्रघ्नी ) योनि मे पित्त दोष का प्राधान्य दिखता है !
? “. चिकत्सा”.?
” संछेपत: कि्यायोगो निदानं परिवर्जनम् !!
: इस नियम के अनुसार जिन कारणो से व्याधि हुई है , उन हेतुओ को प्रथम दूर करना आवश्यक होता है !
चिकित्सा करते समय नित्य योनिमार्ग की स्वच्छता पर ध्यान रखना चाहिए !
पंचवल्कल क्वाथ से योनिप्रछालन करना चाहिये !
: शरीर को चंदनादि तैलो से स्नेहन करना चाहीए !
नागकेशर को पिसकर दहि के साथ तीन दिन लेने सेयी केवल ताजे तक् से भी श्वेतप्रदर ठीक होता है !
प्रात: काल 5से 7 बूँद वटछीर प्राशन तरके ऊपर से गोदुग्ध का सेवन दो सप्ताह तक करने से श्वेतप्रदर ठीक होता है !
मैथून के अतियोग के कारण जननेन्दिय के निर्बल ता तथा मासिक रज: स्त्राव न होन् के कारण जो प्रदर होता है उसमे “” वंगभस्म “” उपयुक्त सिद्ध होता है !
मासिक रज: स्त्रवा के समय अगर “‘ गर्भाशय शूल “” उत्पन्न होता है तो भी ” 1से 3 गुंज प्रमाण मे मक्खन के साथ ” वंगभस्म ” का सेवन लाभप्रद होता है !
गर्भपात के कारण तथा जननेन्दिय के निर्बलता के कारण वश होने वाले प्रदर मे 1से2रत्ति प्रमाण ” तत्रिवंगभस्म ” का दुग्ध के साथ सेवन लाभप्रद सिद्ध होता है !
जीर्ण श्वेतप्रदर म्” सुवर्णवंगभस्म + प्रवाल भस्म + गुडूचीसत्व से उपशय प्राप्त होता है! प्रदरोत्पन्न दुर्लबता के लिए यही कल्प सुवर्णमाछिक भस्म के साथ देने सेअच्छा लाभ मिलता है !
पित्त प्रधान प्रदर मे प्रवाल भस्म लाभप्रद है !
जब दाह बढता है , मुहँ सुख जाता है मुखशुष्कता , कंठशोष , अतिछिणता , ये लछण उत्पन्न होने लगते है एेसी स्थिती मे_ 1 से2रत्ति मात्रा मे गुडूचीसत्व + प्रवाल भस्म मक्खन के साथ गुणकारी होता है!
चिकित्सा करते समय आवश्यकतानुसार शमन एवम् शोधन चिकित्सा भी करनी चाहिए !
शोघन चिकित्सा के साथ अशोकारिष्ट देना चाहिए ! प्रदर व्याधियो मेव्यायाम चिकित्सा भू काफी हद तक उपयुक्त सिद्ध होती है ! स्त्रीयो ने व्यायाम का आचरण किया तो उनहे एेसे व्याधि होने की संभावना नहू के बराबर होती है !
निष्कर्ष.
१_ रोगी को जब अन्य चिकित्सा पध्दि से लाभ नही होता है, तो अन्त मे आयुर्वेद की शरण मे आता है ! तबतक रोगी जीर्ण हो चूका होता है ! २_ स्त्री लल्जा स्वभाव के कारण एक या दो साल तक तो अपने पत्ति/ अभिभावक को नहीबताती है फलस्वरूप रोग जी्ण व कष्टसाध्य होने लगता है !
३_ रोगी के जीर्ण श्वेतप्रदर होने के कारण दुर्बलता ,शूल , अंगमर्दाई , शिर: शूल , अरूचि , अजीर्ण , कटिशूल , अमनस्कत्व ,_ आदि लछण होकर रोग जीर्ण हो जाता है ! अत: स्वर्ण योग चिकित्सा मे काम लेने चाहिए !
योगेन्द् ही क्यो “” ?
यह हैकि योगेन्द् रस योगवाही रसायन है, श्वेतप्रदर जीर्ण होने पर रस रक्तादि धातुओ का निरन्तर छय होता रहता है, जिसके फलस्वरूप वात भी प्रकुपित हो जाती है., अत: वातशामक एवम् रसरक्तादि धातुओ की भी पुष्टि हेतु मात्र एक स्वर्ण ़ोग काफी है
पुष्यानुग चूर्ण + प्रवाल भस्म+ प्रदरान्तक लौह + पुनर्नवा मण्डूर + गिलोय सत्व + शिर: शूलादि वज् रस + गोदन्ती १×२ शहद से भूखे पेट.
Tab. फैमिपलेक्स _२_२ सुबह _ सायम् _ भोजनोत्तर _ पत्रांगासव ४_४ समभाग जल से
आमलकी चूर्ण गोदन्ती भस्म पुनर्नवा मण्डूर का प्रयोग भी लाभदायक हैं साथ में निम्ब पत्र क्वाथ में टंकण व शुभ्रा मिलाकर योनि प्रच्छालन
1)त्रिबंग,अभ्रक,प्रवाल पिष्टी,गोदन्ती भस्म,मुक्ता पिष्टी,बसंत कुसुमाकर रस
2) चंद्रप्रभा वटी,स्त्री रसायन वटी
3) पत्रांगासव
4) नीम क्वाथ में स्फटिक मिलाकर योनि प्रक्षालन।
5) लाजवंती पंचांग चूर्ण 1gm घी के साथ सुबह शाम

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