धानु ग्लेशियर के बाद कुछ दूरी तक समतल और आसान रास्ता है। दाहिनी ओर बहती अलकनन्दा और दूसरी ओर वसुधारा के दर्शन शुरू हो जाते हैं। कुछ आगे जाने पर बुग्याल भी मिलने लगते हैं, जो आगे चमतोली बुग्याल तक बना रहता है। आजकल बुग्यालों में रंग विरंगे कई प्रकार के फूल खिले मिल जाते हैं। पहाड़ से गिर सौ से अधिक धाराएं हमारा मन मोह लिया । यह यात्रा का दूसरा पड़ाव है।यहाँ से हल्की चढ़ाई के साथ रास्ता आगे बढ़ता है जो चमतोली बुग्याल पर समाप्त हो जाता है। चमतोली बुग्याल छोठा सा समतल मैदान है। पानी की उपलब्धता भी है। इसी मैदान में अक्सर लोग कैम्प करते हैं।

बद्रीनाथ से ही दिन के भोजन हेतु पराँठे और अचार पैक करवाकर लाए थे। भूख भी सभी को लग रही थी। यहीं पर पराँठे खोलकर दिन का भोजन कर लिया गया। आधे घण्टे के उपरान्त बारिश के थमते ही एक बार आगे की यात्रा प्रारम्भ कर दी गयी। चमतोली बुग्याल के तुरंत बाद पठारी क्षेत्र और कुछ आगे से ग्लेशियर क्षेत्र शुरू हो जाता है। इसकी विशिष्ठता यह होती है कि आम पहाड़ी पगडण्डी जो पहाड़ों पर चलने के लिए बनी होती है वो भी गायब मिलती है। बड़े-बड़े पत्थरों के ऊपर से चलकर आगे बढ़ना होता है। रास्ते की पहचान हेतु सतोपन्थ जाने वाले यात्रियों या पोर्टर, गाइड आदि ने हर दस से बीस मीटर पर चार-पाँच छोठे-छोठे पत्थर एक के ऊपर एक रख दिए हैं। जिससे अनुमान लग जाता है कि किधर जाना है। इन बोल्डर्स पर चलने में भी अत्यधिक सावधानी का प्रयोग करना होता है। कई बार बड़े से पत्थर के ऊपर पांव रखते ही वो पत्थर ही आगे को सरक जाता है। इन्ही बोल्डर्स पर बनाये गए रास्ते के निशान को देखते हुए आगे बढ़ते गए। करीब एक किलोमीटर पहले से लक्ष्मीवन दिखना प्रारम्भ हो जाता है। लक्ष्मीवन से कुछ नीचे दो ग्लेशियर, सतोपन्थ ग्लेशियर और भागीरथी खरक आपस में मिलते हैं। इस जगह को अलकापुरी के नाम से भी जाना जाता है। पुराणों में अल्कापुरी को कुबेर की राजधानी बताया गया है। ठीक इसके ऊपर अलकापुरी टॉप विराजमान है।
अभी सूर्यास्त में काफी समय था, कुछ मित्र आगे जा चुके थे। मैं, सुरेश भाई राकेश एव परितोष भाई साथ-साथ चल रहे थे। एक जगह पर बोल्डर्स कम और बुग्याली घास दिखी, साथ ही ऊपर हिमालय से बहकर आता छोठा सा नाला भी था। बस फिर क्या चाहिए था। इसी घास पर गुनगुनी धूप में सभी पसर गए। सामने दूसरी ओर ऊंचाई से गिरता वसुधारा जल प्रपात हिलोरें मारता शानदार दिखता रहता है। एक घण्टा लेटे रहने के बाद मस्ती में आगे बढ़ चले। फिर से बोल्डरों के ऊपर उछल कूद करते हुए लक्ष्मीवन पहुँच गए। आज का हमारा रात्रि विश्राम यहीं पर होना था।
पोर्टर और कुछ साथी काफी पहले पहुँच चुके थे। गुफा में हमारा किचन सज चुका था, और रात्रि भोजन की तैयारी शुरू हो चुकी थी। पहुँचते ही गर्मागर्म चाय और बिस्कुट खाये गए। अभी भी अच्छी खासी धूप बाहर खिली हुई थी। कुछ देर आराम करने के उपरान्त टेण्ट लगाने की कार्यवाही को अंजाम दिया गया। हम कुल नौ लोग थे और हमारे पास तीन टेण्ट थे। सभी टेण्ट केचुआ के T-2 यानी दो लोगों वाले टेण्ट थे।सिर्फ मेरा ही टेंट सिंगल वाला था टेण्ट लगाने के बाद मैं विश्राम करने लगा। कुछ मित्र नीचे भोजपत्र के पेड़ों को देखने चले गए। लक्ष्मीवन में कुछ पंद्रह-बीस भोजपत्र के पेड़ हैं। इतनी ऊंचाई पर जहाँ घास तक सही से नहीं उग पाती वहाँ इन पेड़ों का पाया जाना भी अनूठा है। लक्ष्मीवन में पानी की उपलब्धता है, साथ ही कैम्पिंग ग्राउंड भी अच्छा खासा है। जैसे-जैसे सूर्यास्त होता जा रहा था तापमान में गिरावट आनी शुरू हो गई। भोजनोपरांत हम भी अपने टेण्ट में घुस गए। कुछ देर पश्चात सुमित और योगी भाई ताश लेकर हमारे टेण्ट में घुस आए। फिर मस्ती का दौर जो शुरू हुआ आधी रात तक ठहाकों के साथ चलता रहा। आज अपेक्षाकृत आसान दिन था कल से इस ट्रैक पर सबकी असली परीक्षा होनी थी, इसलिए आराम भी जरुरी था। वैसे मुझे स्लीपिंग बैग में कभी भी अच्छी नींद नहीं आती, फिर भी जैसे-तैसे सोने की कोशिश करने लगे।हिमालय की ऊँची चोटियों पर सूर्यादय जल्दी होने के साथ-साथ सुबह भी जल्दी हो जाती है। टेण्ट के बाहर कुछ साथियों की हलचल भी सुनाई देने लगी थी। बाहर तापमान काफी कम था, फिर भी झेलना तो था ही सब जहाँ पर हमने टेण्ट लगाए थे, उससे दो सौ मीटर की दूरी पर ऊपर ग्लेशियर से बहकर आता एक बर्फीले पानी का नाला था। ब्रश आदि लेकर वहीँ गए और फ्रेश हो गए। मुहँ धुलने के बाद अंगुलियां ऐसी सुन्न पड़ी कि जल्दी से वहीँ पर बबूल की सूखी घास इकठ्ठा करके आग जलाकर हाथ सेकने पड़े, तब जाकर कुछ शान्ति मिली।
सुबह सात बजे तक नाश्ता कर लिया गया। खाने में स्वादिष्ठ खिचड़ी आम के अचार के साथ खायी गयी। टेण्ट पर गिरी ओस की वजह से इनको सुखाने के लिए धूप में डाल दिया। कुछ देर पश्चात टेण्ट इत्यादि पैक कर आज की ट्रैकिंग आरम्भ कर दी। बोल्डर्स के ऊपर से हल्की चढ़ाई के साथ रास्ते की शुरुआत हुई। हिमालय में ३५०० मीटर के ऊपर चलने में निश्चित रूप से हवा में ऑक्सीज़न की मात्रा भी कम मिलती है, इस वजह से सांस भी जल्दी फूलने लगती है।

शेष कड़ी अगले भाग में ………….
मेरी ‘सतोपंथ’ यात्रा :- उत्तराखंड के चमोली जिले में बद्रीनाथ मंदिर के करीब माना गांव से – भाग तीन

















