ये तीन मौसम छः ऋतुओं में बाँटे गये हैं। ये ऋतुएँ हैं- वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर। प्रत्येक ऋतु दो-दो मास की होती है। चैत्र-वैशाख में बसन्त, ज्येष्ठ-आषाढ़ में ग्रीष्म, श्रावण-भाद्रपद में वर्षा, आश्विन-कार्तिक में शरद्, मार्गशीर्ष-पौष में हेमन्त तथा माघ-फाल्गुन में शिशिर ऋतु होती है।
वर्षा ऋतु विदाई की ओर है| हिंदी के महान कवि तुलसीदास के शब्दों में फूले हुये कांस से छायी हुई धरती में सफेदी वर्षा ऋतु के बूढ़ी होने का संकेत है| अब वर्षा ऋतु की ऋतुचर्या को धीरे धीरे छोड़कर शरद ऋतु की ऋतुचर्या को अपनाने का समय है|
एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आयुर्वेद में ऋतुचर्या किन सिद्धांतों को ध्यान में रखकर तय की गयी होगी? लगभग 5000 साल पहले तय की गयी ऋतुचर्या क्या आज भी उपयोगी है? संक्षेप में देखें तो पहली बात यह है आयुर्वेद का लोक-पुरुष-साम्य सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि पुरुष लोक के समान है (च.शा.5.3: पुरुषोऽयं लोकसम्मितः) इस सिद्धांत के प्रकाश में देखने पर लोक या पृथ्वी के वातावरण का सीधा सीधा प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ता है क्योंकि लोक और पुरुष में समानता (च.शा.5.3: लोकपुरुषयोः सामान्यम्) होने से सामान्य-विशेष का सिद्धांत कार्य करता है| अर्थात सामान भावों को सामान भावों से मिलाने पर उस भाव की वृद्धि और असमान भावों को मिलाने पर ह्रास होता है| सत्य बुद्धि तभी प्रकट होती है या अकल तभी आती है जब स्वयं के अंदर प्रकृति को व प्रकृति के अंदर स्वयं को देखा जाये (च.शा.5.7): सर्वलोकमात्मन्यात्मानं च सर्वलोके सममनुपश्यतः सत्या बुद्धिः समुत्पद्यते| यहाँ पर लोक से तात्पर्य पूरी दुनिया के वातावरण से है जिसमें छः धातुयें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश तथा आत्मा शामिल हैं (च.शा.5.7): षड्धातुसमुदायो हि सामान्यतः सर्वलोकः| इस सूची में आत्मा का शामिल होना आश्चर्यजनक नहीं मानना चाहिये क्योंकि पौधे, प्राणी और सम्पूर्ण जीवन भी लोक में शामिल है| उपरोक्त साम्य के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस प्रकार चंद्रमा, सूर्य, और वायु क्रम से विसर्ग, आदान, विक्षेप क्रियाओं से जगत का धारण करते हैं ठीक उसी प्रकार सोमांश कफ, सूर्य जैसा पित्त, तथा वायु देह का धारण करते हैं (सु.सू.21.8): विसर्गोदानविक्षेपैः सोमसूर्यानिला यथा| धारयन्ति जगद्देहं कफपित्तानिलास्तथा||
इन आयुर्वेदिक सिद्धांतों को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो पर्यावरण और पारिस्थिक तंत्र के साथ मानव के रिश्तों की अनवरत सार-संभाल या अनुकूलन ही ऋतुचर्या है। इसे साधारण शब्दों में यों समझें कि यदि हवा, पानी, तापक्रम, मिट्टी, पेड़-पौधों में ऋतु के अनुसार परिवर्तन होते हैं तो हमें भी उसके अनुसार जीवन-शैली और खान-पान और पहनावे में परिवर्तन करना पड़ता है| यह परिवर्तन या अनुकूलन ही धातुसाम्य रखता है। यही अनागत रोगों का प्रतिकार या विकार-अनुत्पत्ति में सहायक है।
आज की चर्चा पुनः एक वर्ष बाद शरद ऋतुचर्या पर केन्द्रित है| इस चर्चा के मुख्य शास्त्रीय स्रोत चरकसंहिता (च.सू.6.41-48), सुश्रुतसंहिता (सु.उ.64.13-20) एवं अष्टांगहृदय (अ.हृ.सू.3.42-54) हैं। शरद ऋतुचर्या पर प्रकाशित समकालीन वैज्ञानिक शोध, जो लगभग नगण्य है, का भी सहारा लिया गया है। आयुर्वेदाचार्यों के अनुभवजन्य ज्ञान भी यहाँ समाहित हैं।
संहिताओं में उपलब्ध जानकारी हालाँकि लगभग आठवीं-नौवीं शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर सातवीं शताब्दी के मध्य की है, किन्तु इसका वैज्ञानिक महत्त्व आज भी कम नहीं हुआ है। कुछ जानकारी या ऋतुचर्या निर्देश ऐसे भी हैं जिनकी समकालीन सार्थकता को सावधानीपूर्वक समझना आवश्यक है। यहाँ प्रारंभ में ही यह बताना आवश्यक है कि ऋतुचर्या के पालन का अर्थ यह नहीं है कि आयुर्वेदोक्त दिनचर्या, रात्रिचर्या, स्वस्थवृत्त या सद्वृत्त आदि से छुटकारा मिल गया। शरद ऋतुचर्या का तात्पर्य यह है कि दिनचर्या और रात्रिचर्या में शरद ऋतु में यहाँ बताये समुचित परिवर्तन करना उपयोगी है।
शरद ऋतु के लिये सबसे उपयुक्त भोजन को देखें तो कषाय, मधुर और तिक्त रस, लघु, शीतवीर्य तथा पित्त को शांत करने वाले अन्न पान का भूख लगने और पूर्व में खाया भोजन पच जाने के बाद, मात्रा-पूर्वक सेवन करना चाहिये। शरद ऋतु के लिये सबसे उत्तम खाद्य पदार्थों में दूध, गुड़, मधु या शहद, शालि-चावल, अगहनी-चावल, मूंग, जौ, गेहूँ, मिश्री, खांड, पुराने अन्न, आँवला और परवल शामिल हैं। परन्तु सबसे अधिक यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ऋतु चाहे जो हो आहार अच्छी तरह भूख लगने पर सम्यक मात्रा में ही खाना उपयोगी है। किसी भी ऋतु के दौरान उत्पन्न होने वाले फलों का आहार भी उस ऋतु के लिये सर्वोत्तम है। आधुनिक वैज्ञानिक अध्ययनों की सलाह यह है कि फल प्रतिदिन और पर्याप्त मात्रा में लेना स्वास्थ्य के लिये लाभदायक है।
शरीर में संचित पित्त संशोधन के लिये तिक्त घृत का पान और जरूरी हो तो आयुर्वेदाचार्यों की सलाह और देखरेख में रक्तमोक्षण उपयोगी रहता है। इस प्रक्रिया से वर्षा ऋतु के दौरान संचित हुये पित्त का शरीर से निर्हरण हो जाता है।
शरद ऋतु में कुछ ऐसे अपथ्य हैं जिनसे बचना भी आवश्यक है| मुख्य बात यह है कि ओस, क्षार, ठूँस-ठूँस कर खाने, दही, तेल, वसा, बहुत गर्म दूध, तीक्ष्ण मदिरा, दिन में सोना और पुरवाई हवा से बचना चाहिये। शरद ऋतु में अतितीक्ष्ण, अम्ल, उष्ण पदार्थ, दिन में सोना या धूप में देर तक बैठना, रात में जागना तथा अधिक सहवास का ठीक नहीं होता। शरद ऋतु में हालाँकि धूप सेंकना अच्छा लगता है, किन्तु धूप में बहुत देर तक बैठना स्वास्थ्य के ठीक नहीं होता। हाँ, विटामिन डी की कमी को अवश्य धूप में थोड़ी देर रहकर पूरा किया जा सकता है। समुचित और सीमित संख्या में व्रत भी रखे जाना उपयोगी होता है।
पेय पदार्थो में स्वच्छ निर्मल जल तो सभी ऋतुओं में उत्तम है। ऐसा पानी जिसमें चन्द्रमा की किरणें पड़ी हों, जो मलरहित, साफ़-सुथरा हो और प्रसन्नता देने वाला हो, वही पीने में उपयोग करना चाहिये। ऐसा जल जो दिन के समय सूर्य की किरणों के तेज से तप्त और रात के समय चन्द्रमा की किरणों से शीत हुआ हो, विष व विषाणु मुक्त तथा पवित्र हो, उसे हंसोदक कहा जाता है। यह जल पीने के लिये सर्वश्रेष्ठ है। ऐसे जल में स्नान और डुबकियाँ लगाना भी अमृत की तरह फलदायी है। इस प्रकार का जल सर्दी-गर्मी नहीं करता है। कमल और उत्पल से युक्त तालाब में तैरना, रात्रि के शुरूआत में चंदन, खस तथा कपूर का लेप लगाकर, मोतियों या श्वेत पुष्प की मालायें धारण कर, साफ सुथरे वस्त्र पहनकर, चूने से पूते हुये भवन की उपरी छत पर बैठकर धवल चांदनी का आनंद लेना चाहिये।
एक प्रश्न यह उठता है कि अन्य ऋतुओं की भांति शरद ऋतु में भी विशेष शोधन का प्रावधान क्यों है? जैसा कि पूर्व में कहा गया है, वर्षा ऋतु में संचित पित्त का संशोधन न किया जाये तो यह बीमारी का कारण बनता है| इसीलिये युक्तिपूर्वक तिक्त घृत का सेवन तथा रक्तमोक्षण उपयोगी होता है। वर्षा ऋतु में शरीर वर्षाकालीन शीत का अभ्यस्त होता है। वर्षा ऋतु में पानी से भीगे हुये शरीर में पित्त का संचय होता रहता है। ऐसे शरीर पर जब सहसा शरद ऋतु के सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो शरीर के अवयवों के संतप्त होते ही वर्षा ऋतु में संचित हुआ पित्त शरद ऋतु में कुपित हो जाता है। अतः पित्त-जनित विकारों से बचने के लिये तिक्त घृत का सेवन, विरेचन तथा यथावश्यक रक्तमोक्षण कराना चाहिये।
आधुनिक वैज्ञानिक परिपेक्ष्य में देखने पर स्पष्ट होता है कि शरद ऋतु में प्रायः हृदयघात, अस्थमा का प्रकोप, चमड़ी में रूखापन, जोड़ों में दर्द, क्रोनिक ब्रोंकाइटिस आदि प्रमुख समस्यायें होती हैं। शरद ऋतु में एक तरफ तो उच्च कैलोरी वाला तरमाल खाने की आदत और दूसरी तरफ शारीरिक व्यायाम आदि में कमी भी हानि पहुंचाते हैं। विशेषकर ठंड के कारण रजाई में घुसे रहने या सोफे में धंसे रहने के कारण रक्त संचरण में कमी आती है, आलस्य बढ़ता है तथा चर्बी बढ़ती है। शरद ऋतु में फैट-सेल्स के विशेष तरीके से व्यवहार के कारण शरीर में दर्द, संक्रमण, और व्याधिक्षमत्व में कमी जैसी समस्यायें हो सकती हैं। अतः समुचित आहार-विहार, स्वस्थवृत्त, सद्वृत्त, दिनचर्या एवं रात्रिचर्या का समुचित पालन करना आवश्यक होता है। शरद ऋतु में वायरल संक्रमण से बचने के लिये अणुतेल का प्रतिमर्श नस्य लेना तथा एलरकैल, कोल्डकैल, जैरलाईफ जैसी औषधियां और रसायन आयुर्वेदाचार्यों की सलाह से लेते रहने पर बीमार पड़ने की आशंका बहुत कम हो जाती है।
समकालीन वैज्ञानिक अध्ययनों और अनुभवजन्य-ज्ञान से स्पष्ट होता कि वर्तमान समय में लोगों की दिनचर्या, रात्रिचर्या या ऋतुचर्या तो गड्डमड्ड हो चुकी है, साथ ही प्रज्ञापराध या असात्म्येन्द्रियार्थ संयोग से मुक्ति पाना भी लोगों को कठिन हो रहा है। ऐसी स्थिति में शरद ऋतु में केवल पित्त ही नहीं, बल्कि वात व कफ भी भड़के रहते हैं। हम त्रिदोष-भड़काऊ जेवण शैली के आदी हो रहे हैं| इसलिये शरद ऋतु में शरीर को स्वस्थ रखने के लिये केवल पित्त-नियामक और संक्रमण-मुक्त जीवनशैली से काम नहीं चलता। अब तो सदैव और सबसे उत्तम यही है कि चिकित्सा में कुशल आयुर्वेदाचार्यों की सलाह से त्रिदोष-नियामक आहार-विहार और रसायन आदि का प्रयोग सभी ऋतुओं में करते रहा जाये।
आयुर्वेद की ऋतुचर्या का वर्णन विश्व में सबसे प्राचीन है और इस बात के प्रमाण हैं कि इस विद्या को प्राचीन चीन एवं ग्रीक चिकित्सा पद्धतियों सहित विश्व की अन्य चिकित्सा पद्धतियों ने भारत से सीखा और अपनी पद्धति में समाहित किया। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में ऋग्वेद, अथर्ववेद, चरकसंहिता और सुश्रुतसंहिता आदि में हिप्पोक्रेट्स (460-370 ईसा पूर्व) और गैलेन (129-?199/216 ईस्वी) से कम से कम 1500 वर्ष पूर्व हितायु, सुखायु, स्वास्थ्य और चिकित्सा के लिये ऋतुचर्या, दिनचर्या, रात्रिचर्या, स्वस्थवृत्त, सद्वृत्त, आहार एवं रसायन के महत्त्व को बहुत विस्तृत रूप से प्रतिपादित व वर्णित किया गया था।
ऋतुचर्या का समकालीन महत्त्व आज भी कम नहीं हुआ बल्कि यह हमारी बिगड़ती जा रही जीवनशैली के कारण होने वाले गैर-संचारी रोगों से बचाव का रास्ता है। इन सब बातों का ध्यान रखकर शरद ऋतु में स्वयं को दोष संचय से बचाते हुये स्वस्थ व सुखी रहा जा सकता है।